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मासिक वेब पत्रिका हस्ताक्षर के नवम्बर - दिसम्बर, 2015 संयुक्तांक में "मूल्यांकन" स्तम्भ में साँझा संग्रह "ग़ज़ल - कविता सप्तक" की समीक्षा प्रकाशित ll
ऑनलाइन लिंक (Online Link):
- के. पी. अनमोल
वेदनशील हृदय की शाब्दिक प्रस्तुति: ग़ज़ल-कविता सप्तक- के. पी. अनमोल
“जब भी लगे कि नहीं गुज़र रहा है
मुश्किल दौर जीवन का ऐ दोस्त!
तो हौसला ना हारना तू कभी
क्यूंकि है दौर कौनसा
जो नहीं गुज़रा आज तक,
गुज़र गया जो दौर कल था
और गुज़र जायेगा वो भी
जो दौर आज है”
इस कठिन समय में बहुत ज़रूरी हैं ऐसी पंक्तियाँ। जो हौसला दे, वक़्त की मार को सहने की ताक़त दे। मनोज चौहान की ये पंक्तियाँ इनकी कविता ‘मुश्किल दौर’ का शुरूआती हिस्सा है। यह कविता जीवन के मुश्किल दौर में धैर्य बनाये रखने व अपनी हिम्मत को जुटाये रखने का सार्थक सन्देश देती है। यह कविता शामिल है ‘ग़ज़ल-कविता सप्तक’ नामक एक साझा संकलन में जो जितेन्द्र चौहान जी के संपादन में पार्वती प्रकाशन, इंदौर से प्रकाशित हुआ है। संकलन में कुल 9 नये-पुराने रचनाकारों की काव्य की विविध विधाओं की रचनाएँ सम्मिलित हैं।
पुस्तक में इस प्रकार की कई सार्थक रचनाएँ हैं, जो मन को सुकून और जीवन को ऊर्जा देती हैं। सभी रचनाओं में सामाजिक सरोकारों से जुड़ा सार्थक चिंतन दिखता है।
“माँ की झिड़की के पीछे है अविरल प्रेम
सच्चा है पिता के रोबीले चेहरे के पीछे छिपा प्यार..............नहीं होता प्रेम का पर्याय”
हरिप्रिया जी इस तरह की पंक्तियों के द्वारा अपनी चारों कविताओं में प्रेम की उपस्थिति, उसके स्वरूप और प्रकृति से परिचित कराती हैं।
“लगता जैसे
पिता पेड़ की जड़
और छाया माँ”
“बरसे पैसा
पर पड़ा है सूखा
सुख का खेत”
“प्रसव पीड़ा
नहीं भेद करती
बेटा या बेटी”
वंदना सहाय जी अपनी इन समर्थ हायकु रचनाओं के द्वारा जीवन के कई पहलुओं को छूती हैं। अपने एक हायकु से कुछ ख़ास ‘विषाक्त लोगों’ को कुछ इस तरह आईना दिखाती हैं-
“माँ कह भी
बूढी होते ही भेजा
बुचड़खाने”
वहीँ एक चुटीले हायकु से वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का नज़ारा दिखा जाती हैं-
“नया मदारी
पर जनता देखें
खेल पुराना”
बाज़ारीकरण के दौर में ईमानदारी की दुर्गति को दर्शाता इनका एक अच्छा हायकु-
“बिकाऊ हुआ
झूठ के बाज़ार में
ये हरिश्चंद्र”
और इस कठिन समय में उम्मीद बंधाता और युक्ति सुझाता एक हायकु-
“काली है रात
भोर लाने के लिए
सूरज ढूंढो!”
लेकिन कहीं-कहीं हायकु की तीन अलग-अलग पंक्तियों की प्रकृति को भूल ये भी एक पंक्ति के टुकड़े करती नज़र आती हैं-
“हुआ है दिल
मरुस्थल औ’ यादें
नागफनी-सी”
9 रचनाकारों के संकलन में केवल तीन रचनाकार हरिप्रिया जी, मनोज चौहान जी व वंदना सहाय जी ही प्रभावित कर पाते हैं, वैसे इनके अलावा पुस्तक में श्रीनारायणलाल ‘श्रीश’, मृणालिनी घुले, रामकृष्ण श्रीवास्तव, उमा गुप्ता, डॉ. अंजुल कंसल तथा डॉ. सोना सिंह भी शामिल हैं। हालाँकि रामकृष्ण श्रीवास्तव जी की ‘दिशा हीन’ और डॉ. सोना सिंह की ‘बदली दुनिया’ भी अच्छी कविताएँ कही जा सकती है।
संकलन की अधिकतर रचनाओं के बारे में यही कहना ठीक होगा कि ये संवेदनशील हृदय की शाब्दिक प्रस्तुति है। पुस्तक की भूमिका से बकौल मनोज पंचाल जी, “कविता या ग़ज़ल कहना आसान काम नहीं है। शब्दों को मोतियों की तरह चुनना पड़ता है और एक अनोखी लय से तादात्म्य बनाना पड़ता है। फिर भी कविता का यह भोलापन है कि वह हर किसी को कवि हो जाने का अवसर देती है। इसका एक लाभ यह होता है कि हर कोई अपने मनोभाव, प्रेरणा, संवेदना या निरे अनुभव को सार्थक ढंग से प्रस्तुत कर लेता है। वह बड़ा कवि हो या न हो, एक संवेदनशील प्रस्तोता तो बन ही जाता है।”
- के. पी. अनमोल
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समीक्ष्य पुस्तक- ग़ज़ल-कविता सप्तक (साझा संग्रह)
संपादक- जितेन्द्र चौहान
प्रकाशक- पार्वती प्रकाशन, इंदौर
संस्करण- प्रथम, 2015
मूल्य- 100 रूपये
पृष्ठ- 80
- के. पी. अनमोल
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