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वेब पत्रिका हस्ताक्षर के मई, 2016 अंक में "लघुकथाएं (सप्तक सीरिज) - साँझा लघुकथा संग्रह की समीक्षा प्रकाशित l
ऑनलाइन पढ़ने के लिए लिंक :
- के. पी. अनमोल
मूल्यांकन
विभिन्न सामाजिक सरोकारों व पहलुओं को समेटे सफ़ल ‘लघुकथाएँ’: के. पी. अनमोल
आज की अतिव्यस्त ज़िंदगी में हमारे पास ख़ाली समय न के बराबर बचा है। आज हर किसी को हर काम फ़टाफ़ट जल्दी से जल्दी निपटने की लगी रहती है। फटाफट क्रिकेट T20 की लोकप्रियता इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है।
कुछ यही बात हमारे पढ़ने पर भी लागू होती है। आज अधिकतर लोगों के पास पढ़ने-गुनने का समय ही नहीं है और अगर कुछ लोगों के पास है भी तो थोड़ा-बहुत। ऐसे में अब कोई भी प्रबंधकाव्य, खंडकाव्य अथवा उपन्यास जैसी लम्बी रचनाएँ बढ़ने के बारे में सोच ही नहीं सकता; हाँ, कुछ साहित्य रसिकों को छोड़कर। आज तो बस ऐसा कुछ पढ़ने को चाहिए जो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात बता दे। ऐसे में लघुकथा एक मजबूत विकल्प बनकर उभरती है। लघुकथा कहानी का ही एक छोटा प्रारूप है, बहुत कम शब्दों और समय में ये वह सब कुछ परोस देती है जो एक पाठक को चाहिए होता है। जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव, मुद्दे, रोमांच और सीख सबकुछ हमें लघुकथा में भरपूर मिलता है। किसी एक संवेदना को पकड़कर पाठक को उसके चरम पर ले जाकर मंथन करने लिए विवश कर लघुकथा अपना उद्देश्य पूर्ण कर देती है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि आज गद्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा लघुकथा ही है। बहुत कम समय में अतिलोकप्रिय हुई इस विधा के दिग्गज रचनाकार हिंदी के पास मौजूद हैं, जो अत्यधिक प्रभावी लेखन कर रहे हैं। इस विधा के ख़ूब संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं और खासे लोकप्रिय भी हो रहे हैं।
आज जिस संग्रह पर मैं बात करना चाहता हूँ वह भी लघुकथा संग्रह ही है। यह संग्रह जितेन्द्र चौहान जी के संपादन में ‘लघुकथाएँ’ नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। पार्वती प्रकाशन, इंदौर से प्रकाशित इस पुस्तक में देशभर के कुल 8 लघुकथाकार शामिल हैं। सप्तक सीरिज के इस साझा लघुकथा संग्रह का यह दूसरा भाग है।
पुस्तक में शामिल पहली रचनाकार डॉ. शशि मंगल जी हैं, जिनकी पहली लघुकथा ‘कुछ दिन ऐसे भी’ थोड़ा प्रभावित करती है। स्कूल में छात्रों द्वारा छात्राओं को परेशान करने के कारण एक छात्रा कई दिनों तक स्कूल नहीं आती। ऐसे में उस छात्रा की बस में साथ आने वाली अध्यापिका इस बात को गंभीरता से लेती है और पूरे मामले का पता लगाती है, छात्रा को समझाती है, हौसला देती है और एक बेटी के स्कूल जारी रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कथा का विषय बहुत अच्छा है, इस तरह के सरोकार रचनाओं में आने चाहिए। लेकिन शशि मंगल जी की अन्य दोनों लघुकथाएँ निराश करती हैं।
संग्रह के दूसरे रचनाकार हैं जैनुल आबेदीन ख़ान, इनकी एक लघुकथा ‘आप भी ख़ुश हम भी ख़ुश’ एक प्रदेश विशेष के विद्युत विभाग के कर्मचारियों की पोल खोलती है। मेरे ख़याल से देश के किसी भी हिस्से में यह संभव है। इसे एक अच्छी लघुकथा कहा जा सकता है। इनकी बाकी 3 लघुकथाएँ कथ्य और विषय दोनों स्तर पर कमज़ोर नज़र आती हैं।
संग्रह की अगली रचनाकार अनुप्रिया चौघुले हैं, ‘बेटियों का बचपन’ और ‘कैसा मोल’ इनकी प्रभावी सार्थक लघुकथाएँ हैं, जो क्रमश: ‘लिंग भेद’ व ‘संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता’ को उजागर करती हैं। इनके अलावा ‘बौना’ तथा ‘स्वाभिमान’ भी अच्छी लघुकथाएँ कही जा सकती हैं। पुस्तक में इनकी कुल 7 लघुकथाएँ संग्रहित हैं।
कृष्णचंद्र महादेविया जो हिमाचल प्रदेश के महादेव नामक गाँव से हैं, कुल सात लघुकथाओं के साथ संग्रह में उपस्थित हैं। ‘दूध का क़र्ज़’ लघुकथा में वे एक बेटे में पनप रहे सफ़लता के दर्प को उजागर करते हुए माँ द्वारा उसे विनम्र रहने की सीख देते हैं। बहुत अच्छे विषय पर सधी हुई यह रचना बहुत सुंदर बन पड़ी है। इसके अलावा इनकी अन्य लघुकथाएँ भी पठनीय हैं।
पुस्तक में ममता देवी के रूप में एक बेहतरीन लघुकथाकार उपस्थित हैं। इनकी सभी 6 लघुकथाएँ उत्कृष्ट कही जा सकती हैं और साथ ही इस रचनाकार को पुस्तक का हासिल माना जा सकता है। पेशे से अंग्रेज़ी की प्रवक्ता ममता जी ने आम इंसान की सामान्य जीवन से जुड़ी विभिन्न घटनाओं पर कलम चलाते हुए उन्हें जीवंत अभिव्यक्ति दी है। ‘एसिड अटैक’ नामक लघुकथा का ताना-बाना कुछ इस तरह गूंथा है कि एक भाई द्वारा भूलवश अपनी ही बहन पर एसिड अटैक हो जाता है। बहन जो कि भाई की लव स्टोरी में शरारत के उद्देश्य से भाई द्वारा रखे लिफ़ाफ़े में उसकी प्रेमिका की तस्वीर के स्थान पर अपनी तस्वीर रख देती है, भाई की क्रूरता का शिकार हो जाती है और क़ुदरत की यह अनोखी लीला भरे-पूरे परिवार को तबाह कर देती है। पश्चाताप वश भाई भी सुसाइड कर लेता है। एक महत्त्वपूर्ण विषय का मार्मिक चित्रण कर रचनाकार ने लघुकथा को सार्थक कर दिया है। ममता जी की भाषा और शैली भी काफ़ी समृद्ध हैं। इनकी रचनाओं में नवीनता के साथ परिपक्वता भी देखने को मिलती है। ‘करवा चौथ’ तथा ‘तुलसीदास’ भी इनकी अत्यधिक प्रभावी रचनाएँ हैं।
अगली लघुकथाकार भावना दामले जी हैं, जिन्होंने अपनी छः लघुकथाओं के माध्यम से विभिन्न सामाजिक सरोकार हमारे सामने रखे हैं। एक लघुकथाकार के बतौर भावना जी का लेखन अभी प्रारंभिक अवस्था में है। हालाँकि इन्होंने अच्छे विषयों पर रचनाएँ प्रस्तुत की हैं और काफ़ी हद तक प्रभावित किया है लेकिन इनसे और बेहतर की उम्मीद है।
संग्रह के अगले रचनाकार मनोज चौहान जो शिमला, हिमाचल प्रदेश से हैं। इन्हें अब तक मैं एक कवि के बतौर ही जानता था, लेकिन इनकी लघुकथाएँ पढ़ने के बाद यह अच्छे से समझ चुका हूँ कि ये एक बहुत अच्छे लघुकथाकार भी हैं। संग्रह में शामिल इनकी छः लघुकथाओं में से 3 लघुकथाएँ बहुत समर्थ रचनाएँ हैं। ‘साक्षात्कार’ जो नौकरियों में हो रहे भ्रष्टाचार की पोल खोलती है, ‘व्यंग्य बाण’ जो आरक्षण का विरोध करने के बहाने आपसी दुश्मनी निकालने वालों पर व्यंग्य बाण चलाती है और ‘मनचले’ जो महिलाओं के साथ हो रही छेड़खानी की समस्या को उठाती है व उसका हल भी सुझाती है, पुस्तक की कुछ बहुत अच्छी लघुकथाओं में शुमार की जा सकती हैं। इनकी बाकी 3 लघुकथाएँ भी पठनीय हैं।
पुस्तक में सम्मिलित अंतिम रचनाकार मनोज कुमार ‘शिव’ भी सिद्धहस्त लघुकथाकार कहे जा सकते हैं। इन्होंने अपनी लघुकथाओं में कई अछूते अहसासों को बारीकी से पिरोया है। इनकी ‘लाल साड़ी’ नामक लघुकथा जो नि:संतान ग़रीब दंपत्ति की कथा है, अंत तक आते आते पति के पत्नी के प्रति प्रेम को देखकर भावुक कर जाती है। इनकी ‘जलेबी मेले की’, ‘दोहरापन’, और ‘समझौता’ उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। ‘जलेबी मेले की’ लघुकथा अनायास ही कथासम्राट प्रेमचंद की कालजयी कहानी ‘ईदगाह’ का स्मरण करा जाती है, लेकिन बहुत अच्छी बात यह है कि यह जान-बुझकर ऐसा नहीं करती, सहज ही उस कहानी की विषय-वस्तु के निकट पहुँच जाती है। पुस्तक में इनकी कुल सात लघुकथाएँ हैं।
‘लघुकथाएँ’ पढ़कर यह महसूस हुआ कि इस तरह की किताबें छपनी चाहिए और पढ़ी जानी चाहिए। मैं साधुवाद देता हूँ अपने रचनाकार मित्र मनोज चौहान जी का जिन्होंने मुझे यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक उपलब्ध करायी।
पुस्तक के संपादक जितेन्द्र चौहान जी को बहुत बहुत शुभकामनाएँ इस उत्कृष्ट कार्य के लिए, जिसमें इन्होंने हर आयु वर्ग के रचनाकारों को शामिल किया और शामिल किया उन ज़रूरी सरोकारों को, जिनका शामिल किया जाना बहुत ज़रूरी था। पुस्तक में हमें विभिन्न सामाजिक सरोकारों व पहलुओं पर अच्छी लघुकथाएँ पढ़ने को मिलती हैं। हाँ, संपादकीय की कमी ज़रूर खलती है। ऐसे संकलन में संपादकीय न होकर, पिछले संकलन की समीक्षा का छपा होना कुछ अटपटा-सा लगता है। खैर, फिर भी यह संपादक के नज़रिये पर निर्भर करता है।
पुस्तक में सम्मिलित सभी रचनाकारों को बधाई देते हुए उनसे आग्रह करूँगा कि वे इसी तरह समय और समाज के लिए महत्त्वपूर्ण रचनाएँ रचते रहें।
समीक्ष्य पुस्तक- लघुकथाएँ (साझा संग्रह)
संपादक- जितेन्द्र चौहान
संस्करण- प्रथम, 2016 पेपरबैक
प्रकाशन- पार्वती प्रकाशन, इंदौर ( संपर्क नं. 09165904583)
मूल्य- 80 रूपये
कुछ यही बात हमारे पढ़ने पर भी लागू होती है। आज अधिकतर लोगों के पास पढ़ने-गुनने का समय ही नहीं है और अगर कुछ लोगों के पास है भी तो थोड़ा-बहुत। ऐसे में अब कोई भी प्रबंधकाव्य, खंडकाव्य अथवा उपन्यास जैसी लम्बी रचनाएँ बढ़ने के बारे में सोच ही नहीं सकता; हाँ, कुछ साहित्य रसिकों को छोड़कर। आज तो बस ऐसा कुछ पढ़ने को चाहिए जो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात बता दे। ऐसे में लघुकथा एक मजबूत विकल्प बनकर उभरती है। लघुकथा कहानी का ही एक छोटा प्रारूप है, बहुत कम शब्दों और समय में ये वह सब कुछ परोस देती है जो एक पाठक को चाहिए होता है। जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव, मुद्दे, रोमांच और सीख सबकुछ हमें लघुकथा में भरपूर मिलता है। किसी एक संवेदना को पकड़कर पाठक को उसके चरम पर ले जाकर मंथन करने लिए विवश कर लघुकथा अपना उद्देश्य पूर्ण कर देती है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि आज गद्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा लघुकथा ही है। बहुत कम समय में अतिलोकप्रिय हुई इस विधा के दिग्गज रचनाकार हिंदी के पास मौजूद हैं, जो अत्यधिक प्रभावी लेखन कर रहे हैं। इस विधा के ख़ूब संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं और खासे लोकप्रिय भी हो रहे हैं।
आज जिस संग्रह पर मैं बात करना चाहता हूँ वह भी लघुकथा संग्रह ही है। यह संग्रह जितेन्द्र चौहान जी के संपादन में ‘लघुकथाएँ’ नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। पार्वती प्रकाशन, इंदौर से प्रकाशित इस पुस्तक में देशभर के कुल 8 लघुकथाकार शामिल हैं। सप्तक सीरिज के इस साझा लघुकथा संग्रह का यह दूसरा भाग है।
पुस्तक में शामिल पहली रचनाकार डॉ. शशि मंगल जी हैं, जिनकी पहली लघुकथा ‘कुछ दिन ऐसे भी’ थोड़ा प्रभावित करती है। स्कूल में छात्रों द्वारा छात्राओं को परेशान करने के कारण एक छात्रा कई दिनों तक स्कूल नहीं आती। ऐसे में उस छात्रा की बस में साथ आने वाली अध्यापिका इस बात को गंभीरता से लेती है और पूरे मामले का पता लगाती है, छात्रा को समझाती है, हौसला देती है और एक बेटी के स्कूल जारी रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कथा का विषय बहुत अच्छा है, इस तरह के सरोकार रचनाओं में आने चाहिए। लेकिन शशि मंगल जी की अन्य दोनों लघुकथाएँ निराश करती हैं।
संग्रह के दूसरे रचनाकार हैं जैनुल आबेदीन ख़ान, इनकी एक लघुकथा ‘आप भी ख़ुश हम भी ख़ुश’ एक प्रदेश विशेष के विद्युत विभाग के कर्मचारियों की पोल खोलती है। मेरे ख़याल से देश के किसी भी हिस्से में यह संभव है। इसे एक अच्छी लघुकथा कहा जा सकता है। इनकी बाकी 3 लघुकथाएँ कथ्य और विषय दोनों स्तर पर कमज़ोर नज़र आती हैं।
संग्रह की अगली रचनाकार अनुप्रिया चौघुले हैं, ‘बेटियों का बचपन’ और ‘कैसा मोल’ इनकी प्रभावी सार्थक लघुकथाएँ हैं, जो क्रमश: ‘लिंग भेद’ व ‘संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता’ को उजागर करती हैं। इनके अलावा ‘बौना’ तथा ‘स्वाभिमान’ भी अच्छी लघुकथाएँ कही जा सकती हैं। पुस्तक में इनकी कुल 7 लघुकथाएँ संग्रहित हैं।
कृष्णचंद्र महादेविया जो हिमाचल प्रदेश के महादेव नामक गाँव से हैं, कुल सात लघुकथाओं के साथ संग्रह में उपस्थित हैं। ‘दूध का क़र्ज़’ लघुकथा में वे एक बेटे में पनप रहे सफ़लता के दर्प को उजागर करते हुए माँ द्वारा उसे विनम्र रहने की सीख देते हैं। बहुत अच्छे विषय पर सधी हुई यह रचना बहुत सुंदर बन पड़ी है। इसके अलावा इनकी अन्य लघुकथाएँ भी पठनीय हैं।
पुस्तक में ममता देवी के रूप में एक बेहतरीन लघुकथाकार उपस्थित हैं। इनकी सभी 6 लघुकथाएँ उत्कृष्ट कही जा सकती हैं और साथ ही इस रचनाकार को पुस्तक का हासिल माना जा सकता है। पेशे से अंग्रेज़ी की प्रवक्ता ममता जी ने आम इंसान की सामान्य जीवन से जुड़ी विभिन्न घटनाओं पर कलम चलाते हुए उन्हें जीवंत अभिव्यक्ति दी है। ‘एसिड अटैक’ नामक लघुकथा का ताना-बाना कुछ इस तरह गूंथा है कि एक भाई द्वारा भूलवश अपनी ही बहन पर एसिड अटैक हो जाता है। बहन जो कि भाई की लव स्टोरी में शरारत के उद्देश्य से भाई द्वारा रखे लिफ़ाफ़े में उसकी प्रेमिका की तस्वीर के स्थान पर अपनी तस्वीर रख देती है, भाई की क्रूरता का शिकार हो जाती है और क़ुदरत की यह अनोखी लीला भरे-पूरे परिवार को तबाह कर देती है। पश्चाताप वश भाई भी सुसाइड कर लेता है। एक महत्त्वपूर्ण विषय का मार्मिक चित्रण कर रचनाकार ने लघुकथा को सार्थक कर दिया है। ममता जी की भाषा और शैली भी काफ़ी समृद्ध हैं। इनकी रचनाओं में नवीनता के साथ परिपक्वता भी देखने को मिलती है। ‘करवा चौथ’ तथा ‘तुलसीदास’ भी इनकी अत्यधिक प्रभावी रचनाएँ हैं।
अगली लघुकथाकार भावना दामले जी हैं, जिन्होंने अपनी छः लघुकथाओं के माध्यम से विभिन्न सामाजिक सरोकार हमारे सामने रखे हैं। एक लघुकथाकार के बतौर भावना जी का लेखन अभी प्रारंभिक अवस्था में है। हालाँकि इन्होंने अच्छे विषयों पर रचनाएँ प्रस्तुत की हैं और काफ़ी हद तक प्रभावित किया है लेकिन इनसे और बेहतर की उम्मीद है।
संग्रह के अगले रचनाकार मनोज चौहान जो शिमला, हिमाचल प्रदेश से हैं। इन्हें अब तक मैं एक कवि के बतौर ही जानता था, लेकिन इनकी लघुकथाएँ पढ़ने के बाद यह अच्छे से समझ चुका हूँ कि ये एक बहुत अच्छे लघुकथाकार भी हैं। संग्रह में शामिल इनकी छः लघुकथाओं में से 3 लघुकथाएँ बहुत समर्थ रचनाएँ हैं। ‘साक्षात्कार’ जो नौकरियों में हो रहे भ्रष्टाचार की पोल खोलती है, ‘व्यंग्य बाण’ जो आरक्षण का विरोध करने के बहाने आपसी दुश्मनी निकालने वालों पर व्यंग्य बाण चलाती है और ‘मनचले’ जो महिलाओं के साथ हो रही छेड़खानी की समस्या को उठाती है व उसका हल भी सुझाती है, पुस्तक की कुछ बहुत अच्छी लघुकथाओं में शुमार की जा सकती हैं। इनकी बाकी 3 लघुकथाएँ भी पठनीय हैं।
पुस्तक में सम्मिलित अंतिम रचनाकार मनोज कुमार ‘शिव’ भी सिद्धहस्त लघुकथाकार कहे जा सकते हैं। इन्होंने अपनी लघुकथाओं में कई अछूते अहसासों को बारीकी से पिरोया है। इनकी ‘लाल साड़ी’ नामक लघुकथा जो नि:संतान ग़रीब दंपत्ति की कथा है, अंत तक आते आते पति के पत्नी के प्रति प्रेम को देखकर भावुक कर जाती है। इनकी ‘जलेबी मेले की’, ‘दोहरापन’, और ‘समझौता’ उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। ‘जलेबी मेले की’ लघुकथा अनायास ही कथासम्राट प्रेमचंद की कालजयी कहानी ‘ईदगाह’ का स्मरण करा जाती है, लेकिन बहुत अच्छी बात यह है कि यह जान-बुझकर ऐसा नहीं करती, सहज ही उस कहानी की विषय-वस्तु के निकट पहुँच जाती है। पुस्तक में इनकी कुल सात लघुकथाएँ हैं।
‘लघुकथाएँ’ पढ़कर यह महसूस हुआ कि इस तरह की किताबें छपनी चाहिए और पढ़ी जानी चाहिए। मैं साधुवाद देता हूँ अपने रचनाकार मित्र मनोज चौहान जी का जिन्होंने मुझे यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक उपलब्ध करायी।
पुस्तक के संपादक जितेन्द्र चौहान जी को बहुत बहुत शुभकामनाएँ इस उत्कृष्ट कार्य के लिए, जिसमें इन्होंने हर आयु वर्ग के रचनाकारों को शामिल किया और शामिल किया उन ज़रूरी सरोकारों को, जिनका शामिल किया जाना बहुत ज़रूरी था। पुस्तक में हमें विभिन्न सामाजिक सरोकारों व पहलुओं पर अच्छी लघुकथाएँ पढ़ने को मिलती हैं। हाँ, संपादकीय की कमी ज़रूर खलती है। ऐसे संकलन में संपादकीय न होकर, पिछले संकलन की समीक्षा का छपा होना कुछ अटपटा-सा लगता है। खैर, फिर भी यह संपादक के नज़रिये पर निर्भर करता है।
पुस्तक में सम्मिलित सभी रचनाकारों को बधाई देते हुए उनसे आग्रह करूँगा कि वे इसी तरह समय और समाज के लिए महत्त्वपूर्ण रचनाएँ रचते रहें।
समीक्ष्य पुस्तक- लघुकथाएँ (साझा संग्रह)
संपादक- जितेन्द्र चौहान
संस्करण- प्रथम, 2016 पेपरबैक
प्रकाशन- पार्वती प्रकाशन, इंदौर ( संपर्क नं. 09165904583)
मूल्य- 80 रूपये
- के. पी. अनमोल
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