Saturday, October 10, 2015

मासिक वेब पत्रिका हस्ताक्षर के अक्टूबर , 2015 अंक में "कविता - कानन" स्तम्भ में 2 कवितायें "लिंगडू की गठरियाँ " और "पहाड़ी पर घर" प्रकाशित l

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कविताएँ
लिंगडू की गठरियाँ

उस पहाड़ी और
सर्पीली सड़क के
हर मोड़ पर
मकानों के झुरमुट
के समीप से
जब भी गुजरती है
कोई गाड़ी
नन्हें हाथ हर बार
उठ जाते हैं
ऊपर की ओर
उठाये हुए
हाथों में
लिंगडू की गठरियाँ

मटमैले से कपड़े पहने
मगर चेहरे पर
कोमल व निर्मल
भाव लिए

रूकती नहीं
जब कोई गाड़ी
हताश हो जाते हैं वे
मगर फिर
लौट आती है
चमक
उन आँखों में
लगते ही  ब्रेक
किसी गाड़ी की

दौड़ पड़ते हैं सभी
एक साथ
और जब
खरीद ली जाती है
उनमें से
जिस किसी की भी
लिंगडू की गठरियाँ
हर्षित हो उठते हैं वे

यह छोटी-सी जीत
बढ़ा देती है
उनका हौसला
और जगा देती है उम्मीद
भविष्य में कुछ बड़ा
और बेहतर
कर देने के लिए

वे थमा देंगे
कमाई किए चंद रुपये
घर जाते ही
माँ के हाथ में
ताकि जुटाया जा सके
जरुरत का सामान
घर के लिए

और छोटी पिंकी भी
जोड़ रही है हिसाब
ये सोचकर कि
ले लिया जाएगा उसे
अब नया बस्ता
स्कूल जाने के लिए

मगर नहीं लौटेगी घर
अभी वह
अपने साथियों के
बगैर
जो कि खड़े हैं अब भी
गढ़ाए हुए नज़र
दूर तलक
सड़क के मोड़ पर

आश्वस्त हैं वे भी
कि रुकेगी फिर
कोई गाड़ी
और बिक जाएंगी
उनके  भी हाथों में
थामी हुई
लिंगडू की गठरियाँ


(लिंगडू अर्थात लिंगड़- यह हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों में पाया जाने वाला फर्न कुल का एक पौधा है l प्रदेश के पहाड़ों के नदी-नालों के आस-पास उगने वाले लिंगड़ की सब्जी को लोग खूब पसंद करते हैंl लिंगड़ का वानस्पतिक नाम पैट्रिडियम एक्यूलिन्यूम हैl)


पहाड़ी पर घर

अपने क्वॉर्टर की
बालकनी से
निहारता हूँ जब
पहाड़ी पर बने
उन घरों को
तो एकाएक ही
कौंध पड़ते हैं
कई सवाल
ज़हन में

कैसे जुटाते हैं वे
रोजमर्रा की
ज़रुरत का सामान
मीलों की पैदल
थका देने वाले
रास्ते की चढ़ाई
और उतराई
बाधा बन खड़ी है
हमेशा से ही
उनके और
शहर के बीच

सर्दी के मौसम में
हालात हो जाते हैं
और भी भयावह
पहाड़ी पर गिरा बर्फ
और उसकी ठिठुरन
कंपा देती है
उन्हें अन्दर तक

पहाड़ मोह लेते हैं
मन सैलानियों का
चांदी की परत-सी
दिखती है
बर्फ की चादर
मगर नहीं दिखता
कोई भी आतुर
जान लेने को
वेदना
उनके भीतर की

दूर पहाड़ी के
उस घर की खिड़की से
निहारता है बूढ़ा सुखिया
और खांसता है
चिलम गुडगुडाते हुए

चिंता की लकीरें
उभर आई हैं
उसके माथे पर
वह करता है हिसाब
ठण्ड से मर चुकी
बकरियों का
बर्फ पर फिसलने से
मुन्नी के पावं पर
चढ़े प्लास्टर का
और दूर शहर में
पढ़ रहे बेटे की
फीस का

दरवाज़े पर हुई
आहट
रोक देती है
विचारों का
प्रबल वेग
क्षण भर के लिए

चाय और सत्तू देने आई
पत्नी के लौटते ही
पुनः खो जाता है वह
पहाड़ी जीवन के
गणित को
सुलझाने में

- मनोज चौहान

Tuesday, October 6, 2015

भागलपुर , बिहार से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका "संभाव्य" के अक्टूबर , 2015 अंक में पृष्ठ संख्या 30 पर कविता "वह बुजुर्ग" प्रकाशित l

संभाव्य’ अंतराष्ट्रीय स्तर की पूर्णतः निःशुल्क हिंदी त्रैमासिक है। वर्तमान समय में विश्व के 40 देशों के पाठक सहित भारत के 84 शहरों के सहृदयों का स्नेह इस पत्रिका को प्राप्त है।
इसका ई-संस्करण विश्वग्राम के सभी सुधी पाठकों एवं स्नेहीजन के लिए नीचे दिए गए लिंक पर सहजता के साथ सुलभ है। मुद्रित संस्करण यथासंभव रचनाकारों, हिंदी के लिए समर्पित संस्था और संस्थानों को उपलब्ध कराया जाता है।

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संभाव्य (अक्टूबर - 201 5 अंक )